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सौ रंगों की सारंगी

वीर रस से भरा आल्हा गायन हो या जोगियों का भक्ति संगीत, सारंगी के बिना बात अधूरी है। सारंग देव का वाद्ययंत्र कब लोकयंत्र बन गया, यह जीवन की लंबी यात्रा के पड़ावों की परिणति है। हरियाणवी जीवन का अभिन्न अंग रहे सारंगी ने सांग की अभिव्यक्ति को असरकारी बनाया। किस्सागोई के इस माध्यम की […]
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वीर रस से भरा आल्हा गायन हो या जोगियों का भक्ति संगीत, सारंगी के बिना बात अधूरी है। सारंग देव का वाद्ययंत्र कब लोकयंत्र बन गया, यह जीवन की लंबी यात्रा के पड़ावों की परिणति है। हरियाणवी जीवन का अभिन्न अंग रहे सारंगी ने सांग की अभिव्यक्ति को असरकारी बनाया। किस्सागोई के इस माध्यम की जानी-अनजानी बातें बता रहे हैं डॉ. महासिंह पूनिया
हरियाणा वो प्रदेश है जहां देवी-देवताओं के  साथ संगीत  को जोड़कर देखा जाता है। यहां  दर्जनों गांव  रागों के नाम पर बसाए गए हैं।  यहां के संगीतकार अनेक वाद्य-यंत्रों का प्रयोग करते रहे हैं। इसी प्रकार  का एक वाद्य यंत्र है- सांरगी। सारंगी शब्द मूलत: ‘सा’ तथा ‘रंगी’ शब्दों के योग से बना है। यहां पर ‘सा’ से अभिप्राय जहां ‘सौ’ माना गया है, वहीं पर ‘रंगी’ से अभिप्राय है, ‘जीवन के विभिन्न रंग’। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि सारंगी का उद्भव दक्षिण भारत के सारंगदेव से है। सारंगदेव जिस वाद्ययंत्र को बजाते थे, उसी का नाम सारंगी पड़ गया।
मान्यता है कि सारंगी, चिकारा वाद्य यंत्र से निकली हुई है। जिसका हरियाणवी लोकजीवन से परस्पर गहरा नाता है। यहां का जन-मानस सारंगी के साथ भजन तथा गाथा सुनना पसंद करता है। तभी तो इसा काम करैंगे के जोग्गी गावैंगे जैसा मुहावरा हरियाणवी लोकजीवन में आज भी प्रसिद्ध है क्योंकि हरियाणा में जोगी सारंगी के साथ ही गाते हैं। हरियाणा में प्रचलित अनेक ऐसी प्रेम एवं वीरगाथाएं हैं, जिनको हमारे पूर्वज सदैव सारंगी के माध्यम से ही सुनते आए हैं। इन गाथाओं में निहालदे-सुलतान, हीर-रांझा, पद्मावत, भूरा-बादल, जयमल-फत्ता, गोपीचंद-भरथरी, हरफूल जाट जुलाणी का, आल्हा-ऊदल, पद्मनी-संयोगिता, जाहरवीर गूगा पीर, भाऊ की लूट आदि प्रसिद्ध हैंं। सारंगी से जुड़ी अनेक कहावतें तथा मुहावरे आज भी हरियाणवी लोकजीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। तांत बाजी, राग पाया – कहावत का सम्बन्ध भी सारंगी से ही जोड़कर देखा गया है। हरियाणा में सारंगी की कोथली, तुच्छ तथा व्यर्थ वस्तु से जोड़कर देखी गई है। हरियाणा में भाट तथा जोगी सारंगी का प्रयोग प्रेम-गाथाओं एवं वीर-गाथाओं के गायन में परम्परागत रूप से करते रहे हैं। यहां पर सांग में गाथा प्रारम्भ करने से पूर्व लोकगायक सारंगी के साथ सुर-संधान करते हैं, जिसे साज-मिलाणा भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त आल्हा गायन एवं वीरगाथाओं के गायन में भी सारंगी विशेष रूप से गायन को चर्मोत्कर्ष तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। अहीरवाल में अनेक ऐसे बारहे (संगीतात्मक गायन) गाये जाते हैं, जो सांरगी की धुन के माध्यम से लोकजीवन के रस को संगीत का स्वरूप प्रदान करते हैं। हरियाणवी सांग एवं सांरगी का परस्पर गहरा नाता है। कहते हैं कि एक बार दादा लख्मीचंद के सांग में सारंगी का एक तार टूट गया और उसकी आवाज़ बदल गई। बजाने वाले को इसका पता नहीं चला, किंतु दादा लख्मीचंद ने तुरंत सांग रोककर सारंगी वादक को सारंगी का तार कसने की बात कही।  पंडित मांगेराम ने अपनी एक रागनी में सांग परम्परा, अभिनय तथा लोकवाद्यों की परम्परा को दर्शाया है, जिसमें सारंगी को भी बिंबात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है – हरियाणा की कहाणी सुण ल्यो दो सौ साल की, नई किस्म की हवा चाल्ली नई चाल की, एक ढोलकिया एक सारंगिया खड़े रहैं थे, एक जनाना एक मरदाना दो अड़े रहैं थे। हरियाणा में कोई भी उत्सव, कोई भी महोत्सव की गायन परम्परा सारंगी के बिना सम्पन्न होती ही नहीं। जोगी लोग आज भी लोकगाथात्मक पाड़े गाणे का कार्य सारंगी के माध्यम से ही करते हैं। लोकगाथात्मक  पाड़े महीनों-महीनों तक गाये जाते हैं। बरसात (चौमासे) के दिनों में पशुओं में रोग ना लगे, इसके लिए आज भी गांव की सीमा पर जोगियों द्वारा पाड़े गानेे की परम्परा विद्यमान है। इसके अतिरिक्त चौपालों तथा थाहियों में लोकगाथात्मक किस्सों को सारंगी के माध्यम से महीनों-महीनों तक सुनने की परम्परा विद्यमान रही है। हरियाणा में मुख्यत: दो प्रकार की सारंगी प्रयोग में लाई जाती हैं-पहली-जोगिया सारंगी-जिसको जोगी लोग भिक्षा आदि मांगने के लिए तथा गाथाओं को गाने के लिए प्रयोग में लाते हैं। दूसरी सारंगी – घानी सारंगी के नाम से जानी जाती है, जिसमें उक्त सारंगी की अपेक्षा तीस से चालीस तक तार होते हैं। इसको हम बड़ी सारंगी के नाम से जानते हैं। सांग में यही सारंगी प्रयोग में लाई जाती है, क्योंकि अधिक तारों की बदौलत इसमें सुरों का उतार-चढ़ाव अधिक देखने को मिलता है।  सारंगी का ढांचा तूण की लकड़ी का बना हुआ होता है, क्योंकि तूण की लकड़ी में तेल नहीं होता। इसलिए यह लकड़ी अंदर से थोथी होती है और इससे सुर सही रूप में बाहर निकलते हैं।  सारंगी कीे तारों एवं गज़ का कसाव जितना अधिक होता है, उसकी धुन में उतना ही अधिक पैनापन होता है। दक्ष सारंगी वादक अपने हाथ की उंगलियों की जादूगरी से सारंगी के माध्यम से घुंघरुओं एवं तारों की धुनों से ऐसा सामजंस्य स्थापित करते हैं कि सारंगी की धुन को सुनने वाला हतप्रभ हो उठता है। हरियाणा में ऐसे सारंगी वादक भी हुए हैं जो सारंगी के माध्यम से जो चाहे वह कहलवा सकते थे। उनमें से कुछ सारंगी वादक आज भी बचे हुए हैं। सारंगी की धुन के माध्यम से नाम लेना,  किसी बात को कहना,  गाली आदि तक देना भी उनकी उंगलियों की जादूगरी का ही कमाल होता है। सारंगी एक खोखली लकड़ी पर बकरे की चमड़ी को मंडकर 4 तार धातु के मोटे तथा तीस से चालीस बारीक तार होते हैं, जिनकी खिंचाई घुड़च पर होती है। नीचे जहां तार बंधते हैं, उसको आड कहते हैं। इससे थोड़ा ऊपर जिसके ऊपरी भाग से होकर तार गुज़रते हैं, यहां एक ओर आड होती है, जिसको पुल अथवा ब्रिज के नाम से जाना जाता है। सारंगी के ऊपरी भाग को नाड़ अथवा माथा कहते हैं। सारंगी के ऊपर 11 खूंटी बीच में तथा दाईं तरफ 24 खूंटी लगी होती हैं। इन खूंटियों से तारों की कसावट होती है और तारों के माध्यम से ही सारंगी की धुन निकलती है।
प्रारम्भिक दौर में हरियाणा में ही सारंगी बनाये जाने की परम्परा रही है, किंतु आज हरियाणा में सारंगी कहीं पर भी नहीं बनाई जाती। हरियाणा के सारंगी वादक इन्हें उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान से खरीदकर लाते हैं। हरियाणा में चौमासे के दिनों में आज भी पाड़े गवाने के लिए ग्रामीण जोगियों को बुलाते हैं। आज भी गूगा पीर की गाथा का गायन डेरू एवं सारंगी के साथ देखा जा सकता है।  यह परम्परा आज से वर्षों  पहले हर गांव में विद्यमान थी पर आज सारंगी वादन की परम्परा महज चंद गांवों तक ही सीमित होकर सिमट गई है। आज हरियाणा में गिने-चुने ही सारंगी वादक विद्यमान हैं। हरियाणा के किठाणा, खरक, दूबलधन माजरा, धनोधा, बजीणा, अलेवा, खरक-भरा, सुंदरपुर, खरक-बासी आदि गांवों में परम्परागत सारंगी के जोगिया घराने हुआ करते थे, जो आज महज़ आंशिक रूप में ही विद्यमान हैं। डर है कि पाश्चात्य की आंधी कहीं सारंगी की पारम्परिक धुनों को बहाकर न ले जाए और हमारे कान इस वाद्य की धुन को सुनने के लिए तरस जाएं।

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